Saturday, April 18, 2020

मां, इस चारदीवारी में ही तेरा प्यार सहेज रही हूं।

मां, इस चारदीवारी में ही, तेरा प्यार सहेज रही हूंl

तुझ तक ना पहुंच पाने की, कोरोना के दौर में तेरा प्यार ना पाने की, एक पीड़ा अमूमन झेल रही हूं,  
मां, मैं इस चारदीवारी में ही तेरा प्यार सहेज रही हूं..

इस दुश्मन ने तो अपनों को अपनों से ही जुदा किया है, और बता दिया कि प्यार के पल, कैसे हमने गंवा दिया है.   
तेरी फिकर भरी आवाज सुन मन भर आता है,
तू ठीक है ना, सुनने बस जी चाहता है
हर लम्हा तेरे प्यार का इन आंखों में कुरेद रही हूं,
मां, इस चारदीवारी में ही, तेरा प्यार सहेज रही रही हूं..

हर शनिवार कहती है बेटा घर आ जाना और चावल, आटा, दाल, पापड़ सब घर से ही ले जाना,
क्या मैं नहीं समझती कि यह बस घर बुलाने का एक बहाना है,
असल कारण तो बस तेरा प्यार लुटाना है.
और सोच रही कि तेरा दामन पा सकती, 
सोच रही कि काश मैं तेरी झलक देखने आ सकती,
सोच यह समय जल्दी बीत जाए, मन ही मन इसको कर मैं तेज रही हूं,
मां, इस चारदीवारी में ही, तेरा प्यार सहेज रही हूं..

यह केवल एक खाली कमरा है, जहां मैं समय बिता रही,
रसोई में जाकर, पकवान बनाकर, यूं ही खुद को सर्वगुण बेटी बना रही,
फिर भी तेरे हाथ का खाना खाने में लल्हा रही,
कमरे तो मैं सजा रही, कपड़े भी मैं बना रही,
और बेवजह, कुछ पुराने हुनर यूं जगा रही।
इस तरह, तेरी कमी को, महसूस कर मैं रोज रही हूं,
मां, इस चारदीवारी में ही, तेरा प्यार सहेज रही हूं..

मन करता है तेरे आंचल में छुप जाऊं,
इस चलने के दौर में, कुछ पल को यूं रुक जाऊं
कुछ अपना कह लूं, कुछ तेरा सुन लूं,
तेरी मीठी डाट खाकर, खुद को सुकून दे पाऊं
बस तेरे लिए उमड़ रहे इस प्यार से, भर कुछ पेज रही हूं,
मां, इस चारदीवारी में ही, तेरा प्यार सहेज रही हूं..

और ऐसे मन की पाती में ही, अपना प्यार भेज रही हूं
मां, इस चारदीवारी में ही, तेरा प्यार सहेज रही हूं 
मां, इस चारदीवारी में ही, तेरा प्यार सहेज रही हूं।

Tuesday, April 14, 2020

कुछ बिखरा भी तो अच्छा लगता है ना!

हर पल सब कुछ जमा थमा अच्छा लगता है क्या भला?
कुछ बिखरा भी तो अच्छा लगता है ना।
बिखरे बाल बनाना, कपड़ों के बीच बिखरा दुपट्टा जमाना और चादरों की सिलवट ठीक करना अच्छा लगता है ना!
तो कुछ बिखरा भी तो अच्छा लगता है ना।

घर में बुजुर्गों की तालीमों के साथ, 
मां की उस मीठी डांट के साथ, 
घर भर में दौड़ते बच्चे की बिखरी खिलखिलाहट भी तो अच्छी लगती है ना!
कुछ बिखरा भी तो अच्छा लगता है ना।
उस पतीले में चढ़े दूध में बिखरी चाय की पत्ती भी तो अच्छी लगती है ना!
सच पूछो तो कुछ बिखरा भी तो अच्छा लगता है ना।

मई की गर्मी की आंच तो नहीं,
पैरों में तपतपाती धूप की ताप तो नहीं,
मगर भोर के सूरज की क्षितिज में बिखरी लालिमा, 
ठंडक देती घास पर बिखरी ओस की बूंदें तो अच्छी लगती है ना!
कुछ बिखरा भी तो अच्छा लगता है ना।

अमावस की रात,  काले बादल , फसलों पर पड़ते ओले, आंखों में बेतरतीबी से बिखरा काजल तो नहीं,
पर पूनम की बिखरी चांदनी, बारिश की बूंदों से मिट्टी पर बिखरी सोंधी खुशबू और आंखों में बिखरी मीठी यादें तो अच्छी लगती है ना!
कुछ बिखरा भी तो अच्छा लगता है।

जब बगीचे में जाती हूं, पतझड़ के सूखे पत्ते नहीं भाते,
उन गुलाब के पौधों में लगे कांटे तो नहीं भाते,
लेकिन उन फूलों के आसपास बिखरी तितलियां और जमीन पर बिखरी गुलाब की पंखुड़ियां तो अच्छी लगती है ना!
कुछ बिखरा भी तो अच्छा लगता है ना।

दिवाली के दीयों की कतार ही नहीं,
होली में थाल में रखे रंग के भंडार ही नहीं,
धागे में पिरोए मोती की माल ही नहीं,
मगर आंगन में फुलझड़ी की बिखरी चिंगारियां,
बसंत के वो बिखरे केसरिया टेशू ,
और समंदर किनारे रेत में बिखरे वो सीप भी तो अच्छे लगते हैं ना!
कुछ बिखरा भी तो अच्छा लगता है ना।

यूं तो हर सपनों का सच हो जाना भी अच्छा नहीं लगता, पूरे सपनों को आंखों में बसाना भी अच्छा नहीं लगता,
अगर हर सपने सच हो जा जाएं, तो वो सपने ही कहां रह जाएं,
इसलिए आंखों में कुछ बिखरे सपने संजोना भी तो अच्छा लगता है ना!
सच कहूं तो कुछ बिखरा भी तो अच्छा लगता है ना,
कुछ बिखरा भी तो अच्छा लगता है ना।